पर्वत को छाते के रूप में भारी वर्षा से बचाने वाले भगवान कृष्ण

 पर्वत को छाते के रूप में भारी वर्षा से बचाने वाले भगवान कृष्ण Lord Krishna protecting the mountain from heavy rain in the form of an umbrella

 गोवर्धन पूजा का संबंध भगवान श्रीकृष्ण से है। इस पूजा की शुरुआत द्वापर काल से हुई थी।
गोवर्धन पर्वत उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले के अंतर्गत सथित है। गोवर्धन व इसके आसपास के क्षेत्र को ब्रज भूमि भी कहा जाता है।यह भगवान श्री कृष्ण की लीलास्थली है। यहीं पर भगवान श्री कृष्ण ने द्वापर युग में ब्रजवासियों को इन्द्र के प्रकोप से बचाने के लिये गोवर्धन पर्वत को अपनी कनिष्ठ अंगुली पर उठाया था। गोवर्धन पर्वत को भक्तजन गिरिराज जी भी कहते हैं।सदियों से यहां दूर-दूर से भक्तजन गिरिराज जी की पूजा और  परिक्रमा करने आते रहे हैं। यह ७ कोस की परिक्रमा जो लगभग २१ किलोमीटर की है। परिक्रमा के मार्ग में पड़ने वाले प्रमुख स्थल आन्यौर, गोविन्द कुंड, पूंछरी का लौठा,जतिपुरा राधाकुंड, कुसुम सरोवर, मानसी गंगा, दानघाटी इत्यादि हैं।परिक्रमा जहां से शुरू होती है वहीं पर एक प्रसिद्ध मंदिर भी है जिसे दानघाटी मंदिर कहा जाता है।

गोवर्धन पूजा की पूजा का चलन कब शुरू हुआ 

शास्त्रों के अनुसार इस पूजा को मनाने से  पहले ब्रजवासी देवराज इंद्र की पूजा किया करते थे। लेकिन भगवान श्रीकृष्ण ने गोकुल वासियों को समझाया  कि आप सभी लोग हर साल इंद्र की पूजा  करते हैं लेकिन इससे आपको कोई लाभ नहीं होता है। इसलिए आप सभी को गौ धन को समर्पित गोवर्धन पर्वत की पूजा करनी चाहिए। भगवान् श्री कृष्ण ने गोकुल वासियों को तर्क दिया कि इंद्र से हमें कोई लाभ नहीं प्राप्त होता, वर्षा करना उनका कार्य है, और वह सिर्फ अपना कार्य करते हैं।  जबकि गोवर्धन पर्वत गौ-धन का संवर्धन एवं संरक्षण करता है, जिससे पर्यावरण भी शुद्ध रहता है, इसलिए हमें इंद्र देव की नहीं गोवर्धन पर्वत की पूजा की जानी चाहिए। जब भगवान कृष्ण की बातों को मानकर गोकुल वासियों ने इंद्र की पूजा बंद कर दी और गोवर्धन पर्वत की पूजा शुरु कर दी।जब इस बात इन्द्र देव को पता चला तो  इंद्र देव बहुत नाराज हो गए और उन्होंने अपनी अवमानना के लिए गोकुल वासियों को दंड देने का फैसला किया। क्रोध से भरे इंद्र ने मेघों को आदेश दिया जिससे  गोकुल में  भारी बारिश होने लगी। बारिश इतनी भयंकर थी कि सारे गोकुल में त्राहि-त्राहि मच गई।
इंद्र ने भारी बारिश करके जब पूरे गोकुल को जलमग्न कर दिया तो लोग प्राण बचाने के लिए भगवान की प्रार्थना करने करने लगे।  तब भगवान् श्री कृष्ण ने सभी ब्रजवासीओ को गोवधन पर्वत पर इकठा होने को  कहा ,तब सभी बृजवासी गोवधन पर्वत इकठा हो गये। तब भगवान् श्री कृष्ण नेअपनी कनिष्ठ अंगुली उंगली पर  गोवर्धन पर्वत को धारण  कर लिया। पर्वत को छाते के रूप धारण करने से सभी गोकुल वासी  उसके नीचे आ गए,और इंद्र के प्रकोप से बच गए। सभी गोकुल वासी भगवान् श्री कृष्ण  की जय जयकार करने लगे। 
कृष्ण और इंद्र के बीच जारी इस युद्ध को बढ़ता देख स्वयं परम पिता ब्रह्मा ने इंद्र को बताया कि पृथ्वी पर स्वयं नारायण ने भगवान कृष्ण ने  के रुप में अवतार लिया है और तुम उनको नहीं पहचान रहे हो। ब्रह्मदेव की ये बात सुनकर इंद्र देव  बहुत लज्जित हुए और अपने किए के लिए भगवान कृष्ण से क्षमा  याचना मांगी।
भगवान कृष्ण का इंद्र के मान-मर्दन के पीछे कोई उद्देश्य नहीं था दरअसल वह चाहते थे की  ब्रजवासी गौ-धन एवं पर्यावरण के महत्व को समझें और उनकी रक्षा करें।

 गोवर्धन पर्वत की पूजा कब  होती 

दिवाली की अगली सुबह गोवर्धन पर्वत (गिरिराज ) की पूजा की जाती है।  लोग इस दिन को अन्नकूट के नाम से भी जानते हैं।  गोवर्धन पूजा में गोधन यानी गायों की पूजा की जाती है, गाय को देवी लक्ष्मी का स्वरूप भी कहा जाता है।  देवी लक्ष्मीमाता जिस प्रकार सुख समृद्धि प्रदान करती हैं, उसी प्रकार गौ माता भी अपने दूध से स्वास्थ्य रूपी धन प्रदान करती हैं।  गौ माता के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए ही कार्तिक शुक्ल पक्ष प्रतिपदा के दिन गोर्वधन की पूजा की जाती है, और इसके प्रतीक के रूप में गाय की पूजा की जाती है। 

गोवर्धन पर्वत पूजा  विधि 

दीपावली के बाद कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा पर पुरे  भारत में मनाया जाने वाला गोवर्धनपूजा पर्व बड़ी धूमधाम से  मनाया जाता है।  इसमें हिंदू धर्मावलंबी घर के आंगन में गाय के गोबर से गोवर्धननाथ जी की  प्रतिमूर्ति बनाकर उनका पूजन करते है. इसके बाद ब्रज के साक्षात देवता माने जाने वाले गिरिराज भगवान गिरिराज पर्वत  को प्रसन्न करने के लिए उन्हें अन्नकूट का भोग लगाया जाता है। 
गोवर्धन पूजा करना बहुत ही जरूरी है। गोवर्धन पूजा को प्रकृति की पूजा भी कहा जाता है। क्योंकि भगवान श्री कृष्ण ने गोकुल वासियों को प्रकृति को उसके योगदान के लिए पूजने का आदेश दिया था

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