गोकुल यमुना के तट पर बसा एक गांव है, जहां सभी नंदों की गायों का निवास स्थान था। नंद जी मथुरा के आसपास गोकुल और नंदगांव में रहने वाले सभी गोपों के मुखिया थे। यहीं पर वसुदेव की दूसरी पत्नी रोहिणी ने बलराम को जन्म दिया था। बलराम देवकी के 7वें गर्भ में थे जिन्हें योगमाया ने आकर्षित करके रोहिणी के गर्भ में डाल दिया था।
पूतना का वध
जब कंस को पता चला कि छलपूर्वक वसुदेव और देवकी ने अपने पुत्र को कहीं ओर भेज दिया है तो उसने चारों दिशाओं में अपने गुप्तचरो को भेज दिया और कह दिया कि अमुक-अमुक समय पर जितने भी बालकों का जन्म हुआ हो उनको मार दिया जाए। पहली बार में ही कंस के अनुचरों को पता चल गया कि हो न हो वह बालक यमुना के उस पार कहीं रहता है। तब कंस ने मायावी पूतना को कृष्ण मारने के लिए भेजा। दरअसल बाल्यकाल में ही श्रीकृष्ण ने अपने मामा के द्वारा भेजे गए अनेक राक्षसों को मार डाला और उसके सभी कुप्रयासों को विफल कर दिया। जैसे की कंस द्वारा भेजी गई राक्षसी पूतना का वध किया , उसके बाद शकटासुर, तृणावर्त आदि राक्षस का वध किया। बाद में गोकुल छोड़कर नंद गाँव आ गए वहां पर भी उन्होंने कई लीलाएं की जिसमे गोचारण लीला, गोवर्धन लीला, रास लीला आदि मुख्य है।
कंस का वध
वृंदावन में कालिया और धनुक का सामना करने के कारण कृष्ण और बलराम की ख्याति के चलते कंस समझ गया था कि आकाशवाणी अनुसार इतने बलशाली किशोर तो वसुदेव और देवकी के पुत्र ही हो सकते हैं। तब कंस ने दोनों भाइयों को पहलवानी के लिए निमंत्रण दिया, क्योंकि कंस चाहता था कि इन्हें पहलवानों के हाथों मरवा दिया जाए, लेकिन दोनों भाइयों ने पहलवानों के शिरोमणि चाणूर और मुष्टिक को मारकर कंस को पकड़ लिया और सबके देखते-देखते ही उसका भी वध कर दिया। कंस के वध के बाद उनका अज्ञातवास भी समाप्त हो गया था और उनके सहित राज्य का भय भी। तब उनके पिता और पालक ने दोनों भाइयों की शिक्षा और दीक्षा का इंतजाम किया।
श्री कृष्ण की शिक्षा और दीक्षा
दोनों भाइयों को अस्त्र, शस्त्र और शास्त्री की शिक्षा के लिए सांदीपनि के आश्रम भेजा गया, जहां पहुंचकर कृष्ण-बलराम ने विधिवत दीक्षा ली और अन्य शास्त्रों के साथ धनुर्विद्या में विशेष दक्षता प्राप्त की। वहीं उनकी सुदामा ब्राह्मण से भेंट हुई, जो उनका गुरु-भाई हुआ। इस आश्रम में कृष्ण ने अपने जीवन के कुछ समय बिताये। शिक्षा और दीक्षा हासिल करने के बाद कृष्ण और बलराम पुन: मथुरा लौट आए और फिर वे मथुरा के सेना और शासन का कार्य देखने लगे। उग्रसेन जो मथुरा के राजा थे, वे कृष्ण के नाना थे। कंस के मारे जाने के बाद मगध का सम्राट जरासंध क्रुद्ध हो चला था। क्योकि जरासंघ कंस का श्वसुर था।
जरासँघ का मथुरा पर आक्रमण
कंस की पत्नी अपने पिता मगध नरेश जरासंघ को बार-बार इस बात के लिए उकसाती थी कि वह कंस का बदला ले। इस कारण जरासंघ ने मथुरा के राज्य को हड़पने के लिए 17 बार आक्रमण किए। हर बार उसके आक्रमण को असफल कर दिया जाता था। फिर एक दिन उसने कालयवन के साथ मिलकर भयंकर आक्रमण की योजना बनाई। कालयवन की सेना ने मथुरा को घेर लिया। उसने मथुरा नरेश के नाम संदेश भेजा। श्रीकृष्ण ने उत्तर में भेजा कि युद्ध केवल कृष्ण और कालयवन में हो, सेना को व्यर्थ क्यूं लड़ाएं? कालयवन ने इस बात को स्वीकार कर लिया।
कृष्ण और कालयवन बड़ा भयंकर का युद्ध हुआ और कृष्ण रणभूमि छोड़कर भागने लगे,जो श्री कृष्ण की सोची समझी योजना थी , तो कालयवन भी उनके पीछे भागा। भागते-भागते कृष्ण एक गुफा में चले गए। कालयवन भी वहीं घुस गया। गुफा में कालयवन ने एक दूसरे मनुष्य को सोते हुए देखा। कालयवन ने उसे कृष्ण समझकर कसकर लात मार दी और वह मनुष्य उठ पड़ा।
उसने जैसे ही आंखें खोलीं और इधर-उधर देखने लगा, तब सामने उसे कालयवन दिखाई दिया। कालयवन उसके देखने से तत्काल ही जलकर भस्म हो गया। कालयवन को जो मनुष्य गुफा में सोए मिले थे। वे इक्ष्वाकु वंशी महाराजा मांधाता के पुत्र राजा मुचुकुन्द थे, जो तपस्वी और प्रतापी थे। उनके देखते ही कालयवन भस्म हो गया। मुचुकुन्द को वरदान था कि जो भी उन्हें उठाएगा वह उनके देखते ही भस्म हो जाएगा। कालयवन के मारे जाने के बाद हड़कंप मच गया था। । तब अंतत: कृष्ण ने अपने 18 कुल के सजातियों को मथुरा छोड़ देने पर राजी कर लिया। वे सब मथुरा छोड़कर रैवत पर्वत के समीप कुशस्थली पुरी (द्वारिका) में जाकर बस गए।
द्वारका नगरी
द्वारका नगरी में आकर एक नए कुल और साम्राज्य की स्थापना की। यहां आकर श्री कृष्ण ने 8 विवाह किये। द्वारिका वैकुंठ के समान थी। कृष्ण की 8 पत्नियां के नाम इस प्रकार है रुक्मिणी, सत्यभामा, जाम्बवती, मित्रवन्दा, सत्या, लक्ष्मणा, भद्रा और कालिंदी। इनसे उनको कई पुत्र और पुत्रियों की प्राप्ति हुई।इसके बाद कृष्ण ने भौमासुर (नरकासुर) द्वारा बंधक बनाई गई लगभग 16 हजार एक सो स्त्रियों को मुक्त कराकर उन्हें द्वारिका में शरण दी। नरकासुर प्रागज्योतिषपुर का दैत्यराज था जिसने इंद्र को हराकर उनको उनकी नगरी से बाहर निकाल दिया था। नरकासुर के अत्याचार से देवतागण त्राहि-त्राहि कर रहे थे। वह वरुण का छत्र, अदिति के कुण्डल और देवताओं की मणि छीनकर त्रिलोक विजयी हो गया था। वह पृथ्वी की हजारों सुन्दर कन्याओं का अपहरण कर उनको बंदी बनाकर उनका शोषण करता था। मुक्त कराई गई ये सभी स्त्रियो को कृष्ण ने अपनी पत्नियो का दर्जा दिया। , जो उनके राज्य में सुखपूर्वक स्वतंत्रतापूर्वक अपना अपना जीवन-यापन अपने तरीके से कर रही थीं।
पांडवो से भेँट और जरासंघ और शिशुपाल का वध
एक दिन पंचाल के राजा द्रुपद द्वारा द्रौपदी-स्वयंवर का आयोजन किया गया। उस काल में पांडव के वनवास के 2 साल में से अज्ञातवास का एक साल बीत चुका था। कृष्ण भी उस स्वयंवर में गए। वहां उनकी बुआ (कुंती) के लड़के पांडव भी मौजूद थे। यहीं से पांडवों के साथ कृष्ण की घनिष्ठता का आरंभ हुआ। पांडव अर्जुन ने मत्स्य भेदकर द्रौपदी को प्राप्त कर लिया । कुरुराज धृतराष्ट्र ने पांडवों को इंद्रप्रस्थ के आस-पास का प्रदेश दे रखा था। श्री कृष्ण की सहायता से उन्होंने भी जंगल के एक भाग को साफ कराकर इंद्रप्रस्थ नगर की स्थापना की । इसके बाद कृष्ण द्वारका लौट गए। फिर एक दिन अर्जुन तीर्थाटन के दौरान द्वारिका पहुंच गए। वहां कृष्ण की बहन सुभद्रा को देखकर वे मोहित हो गए। कृष्ण ने दोनों का विवाह करा दिया और इस तरह कृष्ण की अर्जुन से प्रगाढ़ मित्रता हो गई।
द्रप्रस्थ के निर्माण के बाद युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ का आयोजन किया और आवश्यक परामर्श के लिए श्री कृष्ण को बुलाया। कृष्ण इंद्रप्रस्थ आए और उन्होंने राजसूय यज्ञ के आयोजन का समर्थन किया। लेकिन उन्होंने युधिष्ठिर से सुझाव दिया कि पहले अत्याचारी राजाओं और उनकी सत्ता को नष्ट किया जाए तभी राजसूय यज्ञ का महत्व रहेगा और देश-विदेश में यश होगा । युधिष्ठिर ने कृष्ण के इस सुझाव को स्वीकार कर लिया, तब कृष्ण ने युधिष्ठिर को सबसे पहले जरासंध पर चढ़ाई करने की सलाह दी।
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