चार वर्ण

 सनातन धर्म  में   चार  वर्णो का जिक्र आता है , ब्राह्मण ,क्षत्रिय ,वैश्य और शुद्र। यह क्या है वर्ण ? इसका क्या अर्थ है ?आपको क्या लगता है ? सच में ऐसा है ? आइये हम जानते  है की सच में इसका क्या अर्थ है। अगर हम शरीर के हिसाब से ब्राह्मण की बात करें तो मस्तिष्क भाग को   ब्राह्मण कहा गया है।  वह सबसे सर्वश्रेष्ठ है ।



ब्राह्मण


 ब्राह्मण का अर्थ है जिसने अपने आप को अपने तन और मन से अपने आपको  ब्रह्म(ईश्वर ) के साथ जोड़ रखा है।   जो शास्त्रों और वेदों को जानते है असल में  वो  ब्राह्मण नहीं पंडित है और ये बिलकुल सत्य  है।  ब्राह्मण और पंडित   बीच में  भारी फर्क है । वेद शास्त्रों को  रटना, कथा  कहना, इससे कही पहुंचा नहीं जा सकता है । ये बाहर मुखी   यात्रा है । अगर परम को पाना है तो अंदर की यात्रा करनी पड़ेगी ।  उस परम परमेश्वर को जानने वाला ही सत्य में  ब्राह्मण है। सदा सत्य बोलंने वाला ब्राह्मण है , सदा धर्म का पालन करना , सदा ईश्वर को समरण करने  वाला ब्राह्मण है ,सदा मानव कल्याण  इच्छा रखने वाला ही सच्चा ब्राह्मण है। यह गुण  किसी भी मानव में हो तो उसे ब्राह्मण कहते है। 

क्षत्रिय

दूसरा वर्ण है क्षत्रिय । क्षत्रिय शरीर के हिसाब से वक्ष है । क्षत्रिय का धर्म ये है कि मानव जाती की रक्षा करना। लोगो को अत्याचारी और आततायीओ से बचाना। समाज में अत्याचार को रोकना भी एक  सच्चे क्षत्रिये का धर्म है। जब वह काटने पर आता है तब पीछे नहीं हटता है अर्थात जब तलवार उठा लेता है तबी कोई संशय नहीं करता अपना धर्म पूरा निभाता है ।  क्षत्रिय वार करना वार सहना, काटना जानता है । उसके इस कर्म से ही प्रभु का रास्ता है । जो तलवार अत्यचारिओ को काटती थी उस तलवार से अपने अहंकार को ही काटना भी  एक क्षत्रिय का धर्म है । और उस परम परमेश्वर का सदा समरण करना।   

वैश्य

वैश्य के स्वभाव में परमात्मा तक पहुचने का रास्ता है । वैश्य को नफा-नुकसान व्यापार अच्छे से आता है । जब वह अपनी पर आता है तब दाँव पर सब लगा देता है । पुराने समय में एक परम संत हुए है पलटू, जो जाति से वैश्य थे । बाजार में बैठते थे । छोटी-मोटी दूकान चलाते थे । कम लेकर ज्यादा में बेचते थे । जबतक वे इस बाहर की यात्रा पर थे तबतक तो वे सिर्फ व्यापारी थे । दाँव लगाते थे, सौदे करते थे । पर जब भीतर की आत्मिक यात्रा शुरू की तब अपने आपको प्रभु के चरणों में अपने जीवन को दाँव पर लगा दिया । अभी तक जो कुछ नहीं थे सिर्फ राम-नाम के लेने से उसमें जीने लगे । चार अवस्थाएं है भक्त की । जागृति, सुसुप्ति, स्वप्न और तुरीया। इसमें तुरीया सर्वश्रेष्ठ है, दसम द्वार है । ये प्रभु का रास्ता है । जीने लगे वे इसमें और कहने लगे ‘मै राम नाम को मोती ’ अर्थात मैं राम को बेचता हूँ है कोई ऐसी पात्रता रखनेवाला जो इसे खरीद सके अपने को दाँव पर लगा सके । सदा सत्य का सौदा करने वाला ही सच्चा वैश्य है।  शरीर के हिसाब से पेट को वैश्य कहा जाता है। 

शुद्र


चौथा वर्ण है शुद्र । शुद्र वह है जिसमें जीवन का कोई लक्ष्य नहीं होता। ये है शरीर की भाषा में निम्न हिस्सा। शुद्र की परिभाषा सामान्य जीवन में ये की जाती है जैसे नदी में एक लकड़ी जिसका कोई गंतव्य नहीं होता है जैसे पानी बहता है साथ-साथ बहती है । कोई गंतव्य नहीं, कोई लक्ष्य नहीं । बस वैसे ही जीवन को गुजारना, खा लेना, पी लेना, पहन लेना, बस जीवन यापन करना,  विश्राम करना । पर इसमें भी एक गुण है । अगर वह परमात्मा के लिए आत्मचिंतन और साधना करने का मन बना ले तब उसे उस विश्राम से कोई हटा नहीं सकता और उसकी यात्रा शूद्र से ब्राह्मण होने की पूरी हो सकती है वह डिगेगा नहीं जबतक वह प्रभु को पा नहीं लेता है । रैदास शुद्र थे पाया । कबीर जुलाहे थे पाया उन्होंने। हर धर्म में हर परिप्रेक्ष्य में परमात्मा ने बीज डाल के छोड़ा है । आवश्कता है उस बीज को सही भूमि, पानी खाद और संभाल देने की यानि अपनी आत्मा की जोत को इतना जगाने की कि परम जागरण की अवस्था में चले जाये अगर इस कसौटी पर हम अपने आप को कस ले तो हमें उस तक पहुँचने से कोई रोक नहीं सकता । वह मिला ही हुआ है । जरुरत है नजर में उसको अपनी सोच में बनाने की उस परम के पथ पर चलने की, परमात्मा में जीने की ।

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