कृष्ण और सुदामा की मित्रता

 कृष्ण-सुदामा की मित्रता तो सारे जगत को  पता  है। यह दोनों  बहुत पक्के और परम मित्र थे। कृष्ण-सुदामा की दोस्ती एक  मिसाल थी ।  महापुरषों का कहना  कि दोस्त बनाना बहुत आसान है लेकिन कृष्ण जैसा दोस्त मिलना बहुत ही सौभाग्य की बात है।  सुदामा  तो कृष्ण के परम मित्र के साथ परम  भक्त भी  थे। 

सुदामा समस्त वेद-पुराणों के ज्ञाता और विद्वान् ब्राह्मण थे। श्री कृष्ण से उनकी मित्रता ऋषि संदीपनी के गुरुकुल में हुई। कृष्ण और सुदामा ने यही   पर  अपनी शिक्षा पूर्ण की। सुदामा जी अपने ग्राम के बच्चों को शिक्षा प्रदान करते थे और अपना जीवन यापन ब्राह्मण रीति के अनुसार भिक्षा मांग कर करते थे। वे एक निर्धन ब्राह्मण थे लेकिन  फिर भी सुदामा इतने में ही संतुष्ट रहते और हरि भजन करते रहते थे। 

भगवान् कृष्ण  निष्काम कर्मयोगी, आदर्श दार्शनिक एवं दैवी संपदाओं से सुसज्जित महान पुरुष थे।  उनको इस युग के सर्वश्रेष्ठ पुरुष, युगपुरुष या युगावतार का स्थान दिया गया है। कृष्ण  सुदामा की  जीवन शैली भले ही भिन्न हो पर उनकी आपस में मित्रता और प्रेम एक सम्मान था। 

कृष्ण-सुदामा की मित्रता की मार्मिक कथा

जैसे  हम सभी जानते है की सुदामा एक  गरीब ब्राह्मण थे। अपने बच्चों का पेट भर सके उतना  भी उनके  पास धन  नहीं था । सुदामा की पत्नी ने कहा, "हम भले ही भूखे रहें, लेकिन बच्चों का पेट तो भरना चाहिए न ?" इतना बोलते-बोलते उसकी आँखों में अश्रु  आ गए। सुदामा को बहुत दुःख हुआ। उन्होंने दुखी मन से कहा, "क्या कर सकते हैं ? किसी के पास माँगने थोड़े ही जा सकते है।" पत्नी ने सुदामा से कहा, "आप कई बार कृष्ण की बात करते हो। आपकी उनके साथ परम मित्रता है, वे तो द्वारका के राजा हैं वहाँ क्यों नहीं जाते ? जाइए न ! वहाँ कुछ भी माँगना नहीं पड़ेगा !"

सुदामा को अपनी  पत्नी की बात सही लगी। सुदामा ने द्वारका जाने का तय किया। पत्नी से कहा, "ठीक है, मैं कृष्ण के पास जाऊँगा। लेकिन उसके बच्चों के लिए क्या लेकर जाऊँ,अपने पास तो कुछ है भी नहीं "सुदामा की पत्नी पड़ोस में से पोहे ले आई। उसे फटे हुए कपडे में बांधकर उसकी पोटली बनाई। सुदामा उस पोटली को लेकर द्वारका और  निकल पड़े।

द्वारका एक सप्पन्न देश था ,द्वारका देखकर सुदामा तो दंग रह गए। पूरी नगरी सोने की थी। लोग बहुत सुखी थे। सुदामा पूछते-पूछते कृष्ण के महल तक पहुँचे। महल द्वारपाल  ने एक निर्धन और फटेहाल जैसे लगने वाले सुदामा से पूछा, "ऐ ,  कौन हो तुम यहाँ क्या काम है ?"

सुदामा ने  उतर  दिया, "मुझे कृष्ण से मिलना है। वह मेरा परम  मित्र है। अंदर जाकर कहिए कि सुदामा आपसे मिलने आया है।" द्वारपाल को सुदामा के वस्त्र देखकर हँसी आई। पर सुदामा के बार बार आग्रह पर द्वारपाल ने  जाकर कृष्ण को बताया। सुदामा का नाम सुनते ही कृष्ण अपने स्थान से एकदम से उठे, और सुदामा से मिलने नंगे पाँव  दौड़ेदौड़े बाहर की और भागे।  सभी आश्चर्य से देख रहे थे ! कहाँ राजा और कहाँ ये साधू ?

कृष्ण सुदामा को महल में ले गए।सुदामा को आसन पर बिठाया उनके चरणो को जल से धोया।  सांदीपनी ऋषि के गुरुकुल के दिनों की यादें ताज़ा की। सुदामा कृष्ण की समृद्धि देखकर आश्चर्य चकित रह  गए। सुदामा पोहे की पोटली छुपाने लगे, लेकिन कृष्ण ने खिंच ली। कृष्ण ने उसमें से पोहे निकाले। और खाते हुए बोले, "ऐसा अमृत जैसा स्वाद मुझे और किसी में नहीं मिला।"

बाद में दोनों भोजन खाने बैठे। सोने की थाली में अच्छा भोजन परोसा गया। सुदामा का दिल भर आया। उन्हें याद आया कि घर पर बच्चों को पूरा पेट भर खाना भी नहीं मिलता है। सुदामा वहाँ दो दिन रहे।पर वे संकोचवश  कृष्ण के पास कुछ माँग नहीं सके। परन्तु श्री कृष्ण तो अन्तर्यामी हैं।  तीसरे दिन सुदामा जी वापस घर जाने के   लिए निकले। कृष्ण सुदामा के गले लगे और थोड़ी दूर तक छोड़ने गए।घर जाते हुए सुदामा को विचार आया, "घर पर पत्नी पूछेगी कि क्या लाए ? तो क्या जवाब दूँगा ?"

जब सुदामा जी अपने नगर पहुंचे तो उन्होंने पाया की उनकी टूटी-फूटी झोपडी के स्थान पर सुन्दर महल बना हुआ है तथा उनकी पत्नी और बच्चे सुन्दर, सजे-धजे वस्त्रो में सुशोभित हो रहे हैं। ।  पत्नी ने सुदामा से कहा, "देखा कृष्ण का प्रताप ! हमारी निर्धनता  चली गई कृष्ण ने हमारे सारे दुःख दूर कर दिए।" सुदामा को कृष्ण का प्रेम याद आया। उनकी आँखों में खूशी के आँसू आ गए।

 इस प्रकार श्री कृष्ण ने सुदामा जी की निर्धनता का हरण किया।वे श्री कृष्ण के अच्छे मित्र थे। वे दोनों दोस्ती की मिसाल है।  ऐसा था कृष्ण और सुदामा का अमर प्रेम। 


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